प्रिय दोस्तो,
जैसा कि आप जानते हैं, मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की सांगठनिक सचिव और युवा पत्रकार सीमा आजाद को उनके जीवन साथी विश्वविजय के साथ 6 फरवरी 2010 को गिरफ्तार कर लिया गया था। उन पर लगभग उन्ही धाराओं में आरोप लगाया गया है जिन धाराओं में डाक्टर विनायक सेन को आरोपित किया गया था। यानी कम्युनिस्ट पार्टी आफ इन्डिया माओवादी का सदस्य होना और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ना। इसके अलावा कुछ अन्य धाराओं में भी आरोप लगाए गए हैं।
डा. विनायक सेन तो रिहा हो चुके हैं लेकिन सीमा और विश्वविजय को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी है और उनपर जुर्माना भी ठोंक दिया गया है। शायद यह उन बिरले मामलों में से ही होगा जिनमें इन धाराओं के तहत आरोपित व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी है। स्पष्ट है कि मनमोहन सिंह की सरकार उन सभी से बदला ले रही है जो उनकी नीतियों से सहमत नहीं हैं। यह बात ध्यान देने की है कि ऐसा कोई सुबूत नहीं मिला है कि सीमा आजाद और विश्वविजय किसी भी समय हथियारों या विस्फोटकों की कार्यवाइयों में लिप्त रहे हों। उनका एकमात्र ‘अपराध’ यही है कि वे अपनी रजिस्टर्ड द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ के माध्यम से सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे थे और ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ और ‘आॅपरेशन ग्रीन हण्ट’ के खिलाफ पुस्तिकाएं निकाल रहे थे।
राज्य सीमा आजाद और विश्वविजय को किसी भी कीमत पर सजा सुनाना चाहता था। नीचे हम राज्य द्वारा उन्हें दोषी सिद्ध करने के उसके प्रयास के विभिन्न अन्तरविरोधों, असंगतियों और मनगढ़न्त बातों का एक तथ्यगत ब्योरा दे रहे हैं-
1- फैसले के पृष्ठ नम्बर 57 पर यह स्पष्ट उल्लिखित है कि रिमाण्ड के दौरान जिस सामग्री की बरामदगी की गयी थी और उसे सीलबन्द किया गया था, उसे पुलिस स्टेशन में बिना कोर्ट की अनुमति के ‘अध्ययन के उद्देश्य से’ पुनः खोला गया। लेकिन दुर्भाग्य से कोर्ट ने इस प्रक्रिया में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया।
2- यह भी उल्लेखनीय है कि रिमाण्ड को दो बार अदालत द्वारा अस्वीकार किया गया और अन्ततः जब रिमाण्ड दिया गया तो यह गैरकानूनी तरीके से हुआ। इसमें उन सभी कानूनों का उल्लंघन हुआ जो किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को रिमाण्ड पर लेने के लिए कानून द्वारा तय हैं। अदालत ने इस स्पष्ट गैर कानूनी काम को क्यों होने दिया। क्या यह इसलिए था कि एफआईआर के बाद पुलिस नेे जिन मनगढ़न्त और झूठे साक्ष्योें का उल्लेख किया था उनको रिमाण्ड के दौरान तथाकथित बरामदगी के रूप में पेश किया जा सके?
3-सीमा के मोबाइल काॅल डिटेल्स को अदालत में पेश किया गया। लेकिन उनमें सिर्फ 5 फरवरी 2010 तक का ही ब्योरा था। उनमें उसकी गिरफ्तारी के दिन यानी 6 फरवरी 2010 की काॅल डिटेल्स का कोई ब्योरा नहीं है। सवाल यह है कि काॅल डिटेल्स को जान-बूझ कर क्यों छिपाया गया। यदि 6 फरवरी की काॅल डिटेल्स को र्ट में प्रस्तुत किया जाता तो इस तथ्य की पुष्टि हो जाती कि सीमा और विश्वविजय को, सीमा के नई दिल्ली से रीवा एक्सप्रेस द्वारा 6 फरवरी को सुबह 11.45 बजे इलाहाबाद उतरते ही गिरफ्तार कर लिया गया था। यानी 6 फरवरी को दोपहर 2.30 बजे हीरामनि की गिरफ्तारी के बहुत पहले। पुलिस यह कहानी क्यों गढ़ रही है कि हीरामनि द्वारा पुलिस को सीमा और विश्वविजय के बारे में दी गयी सूचना के बाद उन्होंने सीमा और विश्वविजय को 6 फरवरी को रात 9.30 बजे गिरफ्तार किया। पुलिस की क्या मजबूरी थी कि उसने जान-बूझ कर 6 फरवरी 2010 की काॅल डिटेल्स को छिपाया।
4-फैसले के पृष्ठसंख्या 58 पर यह दर्ज है कि गिरफ्तारी की जगह के बारे में पुलिस गवाहों के बयानों में बहुत अन्तरविरोध है। लेकिन फैसले में कहा गया है कि ‘ये छोटे अन्तरविरोध हैं’ और इन्हें नजरअन्दाज किया जा सकता है।
5- अदालत में जब यह पूछा गया कि क्या पुलिस ने सीमा के मोबाइल के काॅल डिटेल्स/ फोन नम्बर / मैसेज में कुछ भी आपत्तिजनक पाया है तो पुलिस का साफ उत्तर था – नहीं। लेकिन फैसले में सीमा के मोबाइल को विभिन्न तिथियों पर विभिन्न जगहों पर दर्शाया गया है। जैसे – लखनऊ, बाराबंकी (30-31.08.09), वाराणसी (4.10.09), कानपुर, फतेहपुर (21-22.11.09) (12-13.01.2010), मिर्जापुर (4.10.09), इटावा, खुर्जा एवं हिमांचल प्रदेश (22-23-24.012010)। (पृष्ठ-55)। क्या ये जगहें ‘संदेहास्पद जगहें’ हैं? यदि हां तो किस तर्क से?
6-पुलिस ने सीमा के मोबाइल को गिरफ्तारी के वक्त प्रस्तुत क्यों नहीं किया। उन्होंने उसके मोबाइल को रिमाण्ड के बाद (गिरफ्तारी के 5 महीने से ज्यादा वक्त के बाद) क्यों प्रस्तुत किया।
7- ‘26 पेज के पत्र’, ;जिसके बारे में पुलिस दावा करती है कि वह उसने रिमाण्ड की अवधि में यानी गिरफ्तारी के 5 महीने बाद सीमा के कमरे से बरामद किया हैद्ध की बरामदगी पर किसी भी स्वतन्त्र गवाह के हस्ताक्षर क्यों नहीं हैं? सीमा के पड़ोसी और सीमा के पिता रिमाण्ड के दौरान वहां उपस्थित थे। तब इस तथाकथित ‘बरामदगी’ पर उनके हस्ताक्षर क्यों नहीं लिये गये।
8- फरवरी 2012 के पहले सप्ताह में निचली अदालत में अन्तिम गवाह की गवाही हो चुकी थी, फिर केस को अप्रैल के मध्य तक क्यों खींचा गया? जबकि सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश था कि इसमें देरी नहीं होनी चाहिए और केस को दिन-प्रतिदिन के हिसाब से सुना जाना चाहिए। न्यायाधीश अनिल कुमार (जिन्होंने पूरे केस की सुनवाई की) का स्थानान्तरण उनके द्वारा फैसला सुनाए जाने से पहले ही क्यों कर दिया गया? मई में केस को दूसरे न्यायाधीश सुनील कुमार सिंह को दे दिया गया। जिन्होंने अन्ततः आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
9-एक दूसरी बात भी उल्लेखनीय है कि फैसले में इस बात को नोटिस में लिया गया है कि सीमा ने एक पत्र अन्नू अर्थात कंचन को लिखा था। और इसे इस साक्ष्य के रूप में पेश किया गया है कि चूंकि अन्नू अर्थात कंचन अपने पति गोपाल मिश्रा के साथ दिल्ली में समान आरोप में गिरफ्तार हुई थीं, इसलिए सीमा का माओवादियों से सम्बन्ध स्पष्ट है। मजे की बात यह है कि दिल्ली कोर्ट ने कंचन और उनके पति को बेल पर रिहा कर दिया है। जबकि वहीं सीमा और विश्वविजय को बेल देने की बात तो दूर, उन्ही समान आरोपों में सजा सुना दी गयी है।
उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि राज्य ने सभी तरह के विरोधों का गला घोंटने का निर्णय कर लिया है। भारतीय सरकार ने लोकतन्त्र के सभी रूपों से पल्ला छुड़ा लिया है। सीमा आजाद और विश्वविजय के खिलाफ यह क्रूर फैसला इसलिए सुनाया गया है ताकि जनता के सामने इसे एक उदाहरण के रूप में पेश किया जा सके कि जो भी राज्य का विरोध करेगा या उसकी आलोचना करेगा उसे सीमा आजाद और विश्वविजय की तरह ही दण्डित किया जाएगा।
यह हमारा दृढ़ विश्वास और आकलन है कि इस निर्णायक मौके पर यदि हम चुप रहते हैं तो दमनकारियों और हत्यारों के ही हाथ मजबूत होंगे।
हम आप सभी से अपील करना चाहते हैं कि आप जिन-जिन मोर्चों से जुड़े हुए हैं वहां इस मुद्दे को उठायें या किसी अन्य तरीके से भी, जैसा आपको उचित लगे, इस मामले को उठायें। इसके अलावा आप इस अपील को उन सभी के पास फारवर्ड कीजिए जो इस अभियान के दायरे को बढ़ाने और तत्पश्चात सीमा आजाद और विश्वविजय के समर्थन में लोगों को एकजुट करने में मदद करें।
नीलाभ
सीमान्त (सीमा के भाई) संगीता (सीमा की भाभी)
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