जब अर्थव्यवस्था का दर्शन, देश के विकास का दर्शन, समाज में फैले भ्रष्ट-तन्त्र का दर्शन, लोकतांत्रिक अधिकारों को खारिज कर पूँजी का दर्शन, सरकारी अनियमितताओं का दर्शन भारतीय लोकतंत्र में बेखौफ फल फूल रहा हो, ऐसे हालात में सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी पर आश्चर्य क्यों? जिस समय सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी हुई उस दरमियान सारे मानवाधिकार कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, समाजवादी व्यवस्था के लिए पहल करने और लगातार मानवतावादी विचारधारा से सम्बन्ध रखने वाले श्रमजीवी, लेखक, कलाकार, पत्रकार, चिन्तक, सामाजिक विषमता के विरुद्ध लड़ने वाले आम लोग सभी के दिलों में दहशत पसरी हुई थी. तमाम जगहों पर तयशुदा संगोष्ठियाँ, आयोजन, रैली, हड़ताल, जुलूस, सभी कुछ पर अचानक ही एक गहरा सन्नाटा छाया था. आखिर सीमा आज़ाद और विश्वविजय को सेसन कोर्ट से उम्र-कैद की सजा के बाद फिर से ये गवाहियाँ देने वाले लोग, सीमा और विश्वविजय (सजायाफ्ता मुजरिम घोषित किए जा चुके) से अपरिचित होने का भाव रखने वाले सजग लोग अब क्यूँ हंगामा मचाने की तैयारियों में जुटते जा रहे हैं?
ये कोई सर्कस का खेल नहीं है कि जब कोई मौत के कुंए में उतरे तभी भीड़ इकट्ठा होगी. गिरफ्तारी के वक्त क्या इसी जोश और जज्बे की जरूरत नहीं थी ? तब कितनी गंभीरता से हंगामा हुआ, ये सभी जानते हैं.. प्रदर्शन किस तरह हुए, कितने जुलूस निकाले गए, कहाँ-कहाँ गोष्ठियां हुईं. सभी ने अपने जायज़ गुस्से को अभिव्यक्त किस दायरे में रहकर किया था. हम सभी इस वास्तविकता से भली भांति परिचित हैं. डर तो उसे लगना चाहिए था जो मौत के कुएं में जोखिम भरे उतरा हो, भला तमाशा देखने वाले और राहगीर तमाशबीन क्यूँ सहमें?
हर बुद्धिजीवी के पुस्तकालय में उन् दिनों भी मार्क्स, लेनिन, एंगेल्स, ट्राटस्की, माओत्से तुंग, जैसे क्रांतिकारी विचारकों का साहित्य अवश्य ही मौजूद रहा होंगा, जब सीमा और विश्वविजय को गिरफ्तार किया गया तब वो कौन सा हथियार और शस्त्र लिए हुए थे? आखिर किताबें ही तो थीं जो उनके पास से बरामद हुई. इस देश में अगर सेक्स परोसने वाली किताबें बाज़ार में बिक सकती हैं, पूँजीवाद को बढ़ावा देने वाली किताबें छापी जा सकती हैं, लड़कियों को अधनंगा दिखाकर उनके जिस्म की तस्वीरों भरी किताबें सड़कों पर खुलेआम बेची जा सकती हैं. हज़ारों लाखों टन कागज़ अगर उद्योगपतियों के उत्पादित सामान बेचने वाली पत्रिकाएँ बर्बाद कर सकती हैं, जिस देश में गरीब बच्चों को पढ़ने लिखने के लिए कागज़ मुहैया नहीं है वहां हर अपराध से संबंधित अपराध कथाएं खूब मात्रा में कागज़ की खपत करते हुए धड़ल्ले से रोज चस्क के साथ डाइनिंग या डिनर टेबल पर मिल जाती हैं.
जो आदिवासी अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए लड़ रहे हैं वो सरकार की नज़र में माओवादी और जो सरकार किसानों का अन्न उद्योगपतियों को सब्सीडी देकर सस्ते से सस्ते में बेंच रही है और किसान भूखों मर रहा है उसे आप क्या कहेंगे? आखिर माओ और मार्क्स की किताबें क्यूँ नहीं बेची, खरीदी और पढ़ी जा सकती हैं?. क्या हम ये मान लें कि कुछ समय तक सरकार के भय से ऐसे तमाम जनसेवकों ने वैज्ञानिक चेतना से भरी किताबो को तहखाने में छुपा कर रख दिया था. और सकारी छानबीन ज्यूँ ही ठंडी पड़ती दिखाई दी. उन किताबों को तहखाने से निकालने की सुगबुगाहट के साथ ही हथेली पर पुनः क्रान्ति की पोर-पोर उभर आयी.
ये जनतंत्र है और इसकी हिम्मत बस इतनी ही है कि वो हर रात एक खास समय में सियारों की तरह हूकना नहीं भूलता. भला इस हुंकार से कहीं किसी जनवादी तन्त्र को जीने की मोहलत मिल सकी है? भला किसी राज्य और राष्ट्र के कानून भी कहीं किसी परवरदिगार ने लिखे हैं? कि धर्मग्रन्थ खोलकर उच्चारण करने की मुद्रा में ही मुक्ति मिलना तय है. ऎसी तमाम गिरफ्तारियाँ सरकार के खिलाफ़ राज्य और राष्ट्र के कानून के विरुद्ध जन-क्रान्ति चाहती हैं. वो सरकारें जो किसी भी देश में आम नागरिकों के ज़िंदा रहने की हर मुमकिन सुविधाएं छीन रही है. वो कानून जो आम नागरिक के मूल आधिकारों को ही खारिज करता हो. उसे दण्डित कर रहा हो. ऎसी सत्ताएं जिनकी पूँजी की हवश में गाँव, खेत-खलिहान, किसान मजदूर, संगठित व असंगठित श्रमिक वर्ग जल, जंगल, जमीन सभी स्वाहा हो रहे हों. क्या ऎसी नीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए भी हमें बर्बर सरकारों से इजाज़त लेनी होगी. अगर ऐसा नहीं है तो फिर इतनी खामोशी क्यूँ ? वो आम नागरिक जिनकी गणना इस देश के किसी पैमाने पर कहीं दर्ज नहीं है उनकी साँसें, उनका जीवन कहाँ डिगा है?
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